|
१ अक्तूबर , १९५८
मधुर मां, नैतिक पूर्णताका आदर्श क्या है?
नैतिक पूर्णताएं हज़ारों है । हर एक्का नैतिक पूर्णताका अपना-अपना आदर्श होता है ।
सामान्यतया, जिसे नैतिक पूर्णता कहा जाता है वह है उन सब गुणोंका होना जो नैतिक समझे जाते हैं : किसी दोषका न होना, कमी अनुचित न करना, कमी भूल न करना, सदा अपनी ऊंची-से-ऊंची स्थितिमें रहना, सब सद्गुणोंका होना... यानी, उच्चतम मानसिक कल्पना और भावनाको चरितार्थ करना : सब गुणोंको (अनेक गुण है, है न?), सब संकेतोंका, उस सबको जो मनुष्यकी परिकल्पनामें सुन्दरतम है, कुलनितम है, सबसे सच्चा है, और फिर उन्हें सर्वांग रूपसे जीवनमें उतारना, अपने सभी काम उसीसे परिचालित होने देना, सब गतिविधिया, सब प्रक्रियाएं, सब भावनाएं, सब कुछ... । यह है पूर्णताके नैतिक आदर्शको जीना । मनुष्यके मानसिक विकास-कर्मका यह शिखर है ।
इसे करनेवाले लोग बहुत नही है... । लेकिन फिर भी! कुछ हुए है और कुछ अब भी हैं । आम तौरसे लोग इसे ही आध्यात्मिक जीवन मानते हैं । जब वे इस तरहके किसी आदमीको देखते है तो कह उठते है : ''ओह! यह महान् आध्यात्मिक पुरुष है ।'' वह एक बड़ा संत हों सकता है, एक बड़ा साधु हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक पुरुष नहीं हो सकता ।
फिर भी, यह आदर्श है बहुत अच्छा और इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है! ओर आंतरिक विकास-क्रममें ऐसा समय आता है जब इसके लिये प्रयत्न करना और इसे उपलब्ध करना बहुत आवश्यक होता है । यह तो स्पष्ट ही है कि अपने आवेगों और अशानमयी बाह्य प्रतिक्रियाओंसे परिचालित होनेकी अपेक्षा यह अनतगुना उदात्त है । कुछ अर्थोंमें यह अपने स्वभावपर प्रभुत्व पाना है । बल्कि यह एक अवस्था है जिसमेंसे मनुष्यको गुजरना
ही पड़ता है, क्योंकि यह वह अवस्था है जब मनुष्य अपने अहंका स्वामी बनना शुरू करता है, जब बह इसे झाडू फेंकनेको तैयार होता है -- तब भी यह होता तो है पर इतना दुर्बल हो जाता है कि अंत समीप ही दिखता है 1 दूसरी तरफ जानेके लिये यह अंतिम पड़ाव होता है और निश्चय ही, यदि कोई इस पड़ावसे गुजरे बिना दूसरी तरफ जानेकी कल्पना करता है तो वह भारी भल कर बैठनेका गुरूर जोखिम उठाता है... अपनी निचली प्रकृतिके सम्बन्धमें पूर्ण दुर्बलताको पूर्ण स्वतंत्रता समझ बैठता है । नैतिक पूर्णताके इस आदर्शको कुछ समयके लिये, चाहे वह कितना ही थोड़ा क्यों न हो, उपलब्ध किये बिना मनोमय पुरुषसे (चाहे वह पूर्णतम और सर्वाधिक असाधारण ही क्यों न हो) सच्चे आध्यात्मिक जीवनकी ओर जाना लगभग असंभव है । ऐसे बहुत लोग हैं जो पथको छोटा बनानेकी चेष्टा करते हैं और बाह्य प्रकृतिकी सब कमज़ोरियों विजय पानेसे पहले अपनी आंतरिक स्वतंत्रताका दावा करना चाहते हैं -- वे अपनेको चलनेका भारी खतरा मोल लेते है । सच्चा आध्यात्मिक जीवन और पूर्ण स्वतंत्रता उच्चतम नैतिक उपलब्धियोंमें कहीं अधिक उच्चतर चीजों हैं, लेकिन तुम्हें, उस स्वतंत्रता नामकी चीजसे अवश्य बचना चाहिये जो केवल आत्म-रंजन और सब नियमोंकी अवज्ञा है ।
मनुष्यको ऊपर उठना चाहिये, हमेशा ऊपर, और ऊपर; उन्नततम मानवजातिने जो कुछ प्राप्त किया है उससे कम उन्नत नहीं ।
सच्ची आध्यात्मिकतामें, उस आध्यात्मिकतामें, जो सीमाओंसे बंधी नही है, जो 'अनंतता' और 'शाश्वतता'में सर्वांगीण रूपसे वास करती है, प्रवेश पानेके त्दिये अपने आध्यात्मिक पंख खोलनेसे पहले और उन सब चीजोंको ऊपरसे इस प्रकार देखनेसे पहले कि वे अभीतक व्यक्तिगत रूपसे संबंधित है, मनुष्यमें अनायास ही वह सब बन जानेकी क्षमता होनी चाहिये जिसे मनुष्यजातिने उच्चतम, सुन्दरतम, पूर्णतम, अधिक-से-अधिक अनासक्त, अधिक-सें-अधिक विस्तृत और अधिक-सें-अधिक श्रेष्ठ माना है ।
३७६
|